लोकसभा चुनाव का सातवां और आखिरी चरण 19 मई को होने के बाद मतगणना 23 मई को होगी। जाहिर है, तभी पता चलेगा कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के मतदाताओं ने क्या जनादेश दिया है। आदर्श स्थिति तो यही है कि सभी राजनीतिक दल-नेता चुनाव परिणाम की प्रतीक्षा करें और फिर जनादेश के अनुरूप नयी सरकार के गठन की प्रक्रिया शुरू हो, पर चुनाव प्रचार में न्यूनतम शिष्टाचार और मर्यादा को तार-तार कर देने वालों से आदर्शों की अपेक्षा कैसी? नवगठित छोटे राज्य तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की भाजपा विरोधी छवीकरण की उतावली देखते ही बनती है। जिस आंध्र प्रदेश में से पृथक तेलंगाना राज्य बना, उसके मुख्यमंत्री एवं तेलुगू देशम के मुखिया चंद्रबाबू नायडू भी भाजपा विरोधी रुवीकरण का अगुआ बनने का कोई मौका नहीं चूकना चाहते। नरेंद्र मोदी सरकार के शुरुआती वर्षों में तेलुगू देशम राजग का घटक रह चुका है। के. चंद्रशेखर राव की भी मोदी सरकार के शुरुआती दौर में भाजपा से नजदीकियां गोपनीय नहीं रहीं। चंद्रशेखर राव तेलंगाना के चुनाव से फ्री होते ही स्वत-स्फूर्त भाव से विपक्षी एकता की कवायद में जुट गये हैं तो नायडू भी चाहते हैं कि 23 मई को मतगणना का इंतजार किये बिना, 19 मई को आखिरी चरण के मतदान के बाद ही सभी गैर भाजपा दलों की बैठक हो, लेकिन विपक्ष के दो दिग्गजों - मायावती और ममता बनर्जी ने उन्हें चुनाव परिणामों तक रुकने की सलाह दी है। फिर भी चनाव प्रक्रिया के बीच ही नये समीकरण बनाने, दोस्त तलाशने की कवायद से कछ स्वाभाविक सवाल तो उठते ही हैं। रही होगी कभी विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की राजनीतिक-विचारधारा, नीति, सिद्धांत आधारित- पिछले कुछ दशकों से तो यह महज सत्ता का खेल बनकर रह गयी है। एक ऐसा खेल, जिसमें बहमत के लिए जरूरी आंकडा जटाना ही अंतिम लक्ष्य है। वह आकडा नये दोस्त तलाश कर जटाया जाये या पराने टश्मनों को दोस्त बनाकर अथवा विशद सौदेबाजी करके इससे किसी को ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। तभी तो यह कहावत अब नीति वाक्य की तरह दोहरायी जाने लगी है कि राजनीति में कभी कोई स्थायी मित्र या शत्र नहीं होता। यानी परिस्थितियों या जरूरतों के मुताबिक राजनीति में संबंध और समीकरण बदलते रहते हैं। अब यह असहज क्या होता गंकटा जाने की कवायद चुनाव परिणामों के बाद ही शुरू होती है अथवा फिर पहले से यह आभास हो जाये कि चनाव पर्व समीकरणों से बात नहीं बनने वाली। हार-जीत का पता तो 23 मई को ही चलेगा लेकिन मतदान के शुरुआती चरणों तक यह आम धारणा रही कि 2014 जितनी स्पष्ट दिखाया न पड़ते हुए भी इन चुनावों में मोदी लहर स्वाभाविक एव अपेक्षित चुनावी मुद्दों पर भारी पड़ रही हैं। मुद्दों के बजाय मोदी के नाम पर चुनाव के लिए सिफ भाजपा को ही दोष नहीं दिया जा सकता। अपने पिछले चुनावी वायदों और उन पर अमल की हकीकत से मुंह चुराकर नये लोकलुभावन वायदों-नारों पर वोट लुभावन वायदा-नारा पर वाट मांगना हमारे राजनीतिक दलों-नेताओं की फितरत ही र राजनाातक दला-नताआ का फितरत ही बन गया ह। इसका वजह समझना भी मुश्किल नहीं होना चाहिए। चुनाव जीतने के लिए स्वर्ग ही धरती पर उतार लान क वायदे कर दिये जाते हैं, और जब अगले चुनाव में रिपोर्ट कार्ड पेश करने या जनता एवं विपक्ष द्वारा सवाल पूछे जाने का मौका आता है तो उनसे मुंह चुरा कर नये नारो-वायदों के अलावा कोई विकल्प बचता ही नहीं । इसलिए यह अनायास नहीं है कि अच्छे दिन, हर भारतीय के बैंक खाते में 15 लाख, नोटबंदी और जीएसटी सरीखे मुद्दों के बजाय मोदी और भाजपा को पुलवामा-बालाकोट पर वोट मांगना ज्यादा फायदेमंद लग रहा ह। यह आजमाया हुआ नुस्खा है कि बात जब राष्ट्रभक्ति और आस्था की हो, तब तर्क और सवाल के था का हा, तब तक आर सवाल के लिए जगह नहीं बचती ।तब क्या मतदान के चरण बीतते-बीतते यह आजमाया हुआ नुस्खा भी अपेक्षित चमत्कारिक परिणाम नहीं दे पा रहा? यह सवाल इसलिए भी कि गैर भाजपा दल ही नहीं, खद भाजपा भी नये समीकरण और राजनीतिक दोस्त तलाश रही है। जिस तरह बिहार में अपनी जीती हई सीटें भी जनता दल-यनाइटेड को बंटवारे में दे दी गयीं या महाराष्ट्र में चिर असंतष्ट शिवसेना को मनाया गया अथवा उत्तर प्रदेश में अपना दल सरीखे बेहद छोटे दल को भी खश किया गया, वह मोदी और भाजपा की छवि से मेल हरगिज नहीं खाता। जाहिर है, पलवामा- बालाकोट पर आक्रामक जोश के व बालाकोट पर आक्रामक जोश के बावजद 2014 वाला आतातिशास नहीं है वाला आत्मविश्वास नहीं है। यह सही है कि 2014 में चनाव प्रचार के दौरान और प्रधानमंत्री बनने के बाद भी कछ समय तक मोदी दलगत राजनीति से ऊपर उठकर तमाम राज्यों के मख्यमंत्रियों के साथ मिलकर टीम इंडिया की तरह देश के सर्वांगीण विकास के लिए काम करने की बातें करते थे, लेकिन बाद में गैर भाजपा शासित राज्य का शायद ही कोई मख्यमंत्री बचा हो. जिस पर उन्होंने मौके-बेमौके निशाना न साधा हो। समुद्री तफान फानी से निपटने में उडीसा की नवीन पटनायक सरकार की प्रशंसा मोदी की उस आक्रामक छवि से मेल नहीं खाती। इसीलिए सवाल उरा कि व्या गोटी सवाल उठा कि क्या मोदी चनाव पश्चात नये राजनीतिक समीकरण की संभावनाएं तलाश रही हैं?दलगत राजनीति और चुनाव के जरिये ही चार बार मुख्यमंत्री बन चुके नवीन पटनायक पर राजनीतिक राग-द्वेष का आरोप कभी नहीं लगा। हां, अराजनीतिक पृष्ठभूमि के बावजूद उन्होंने कभी कालाहांडी और भुखमरी के लिए जाने, जाने वाले उड़ीसा का कायाकल्प कर तटस्थ प्रेक्षकों की प्रशंसा अवश्य पायी है। चुनाव पूर्व भी वह किसी खास राजनीतिक गोलबंदी का हिस्सा नहीं बने। ऐसे में चुनाव पश्चात आवश्यकता पड़ने पर नवीन पटनायक का बीजू जनता दल केंद्र में मोदी सरकार के लिए राजग को समर्थन दे भी सकता है। उच्च सत्ता महत्वाकांक्षा के शिकार के. चंद्रशेखर राव भी खद को राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बनाये रखने और अपनी विरासत सरक्षित करने के लिए कब पाला बदल लें, कोई नहीं जानता। अगर अपने डीएनए तक पर सवाल उठाये जाने के बावजद नीतिश कुमार राजग में वापस लौट सकते हैं तो खुद को गैर भाजपाई खेमे में कमान न मिलने पर चंद्रबाबू को देशहित में ऐसा कदम उठाने में भला क्या संकोच हो सकता है? कांग्रेस द्वारा लगातार अपमानित किये जाने वाले जगन मोहन रड्डा का वाइएसआर काग्रस को भी मादा या भाजपा से काइ एलजा क्या हाना चाहिए?अगर ये संभावनाएं भाजपानीत राजग सरकार का ही संकेत दे रही हैं. तब गैर भाजपाती दलों की गतिविधियों का क्या अर्थ है?
मोदी में ध्रुवीकरण